बस्ता

बचपना था, दो किताबे थी छोटा सा बसता था
वयस्क होते गए, किताबे बढ़ी और बसता भी।
उमर बढ़ी बस्ता वही, रास्ता कुछ और था
पहले बस्ता सिर्फ एक बस्ता था!
जो अब जिमादारियो का वजन बढ़ाता गया
पहले बस्ते की मोल न जाना हमने,
अब बस्ता ही जीवन का मोल बन जहा हम बस्ते जा रहे।
बस्ता था छोटा सा जो अब बड़ा हो गया।।

~शुभ

….….राखी………

बचपन में सगुन देने में आना कानी करने से युआकाल में कभी कुछ ना दे पाने का एहसास है ये राखी।

राखी एक डोर का त्योहार नहीं, जन्म से मरण तक के अटूट रिश्ते का एहसाह हैं ये राखी।

बहनों से हाथो का श्रृंगार अब अधूरा होता चला गया; समय,दूरियां मजबूरियां, डाक का इंतजार और कलाईयों का खुद से श्रृंगार तुम्हारे होने का एहसास दे जाती ये राखी।

हा याद आते है सारे गुजरे पल हर साल हर छड़; यादों को समेटे, मंद मुस्काते आश लगाए खो से जाते की अगले बरस बहना ही बाधेगी ये राखी।

~शुभ

रागी

कभी कभी यूं ही बाहर आ जाया करता हूं,
छटी धुंध के पीछे चांद को देख जाया करता हूं,
सुकून के उन क्षणों को समेटे कही खो जाया करता हूं
कभी कभी यूं ही बाहर आ जाया करता हूं।

शुभ~

खामोश!

कभी कभी खामोश हो जाता हूं।
हां मुझे वह खामोशी पसंद है।


किसी से बात नहीं, खुद के साथ थोड़ी ही सही।
सब धुंधला सा स्थिर हो जाता


मुझमें मैं ढूंढता, खामोश सोचता,
हां मुझे वह खामोशी पसंद है।


शायद मन को एक ऊर्जा मिल जाए,
दिल को खुद के होने का सुकून दे जाए।

शुभ ~

“अटूट प्यार”

संसार की न फिकर भली,
घर बार की न जीकर भरी।
वो प्यार है जिसके भीतर वो चली।।

राधा सी पग चीन्हो पर चली,
कन्हिया के सीने में थी छुपी।
वो प्यार है जिसके भीतर वो चली।।

उर्वसी सा प्यार था, थी वो एक गगन परी,
सब भेदों को छोड़ , पृथ्वी पर आ चली।
वो प्यार ही था जिसके भीतर वो चली।।

कहत संसार अंबर, धरती का कोई मिलन नही,
कहती! अंबर बिना धरती का अस्तित्व है कही?
वो प्यार ही था जिसके भीतर वो चली।।

जग हसेगा लोग करेंगे बाते कई,
जग की चिंता भूल वो मीरा सी खो चली।
वो प्यार ही था जिसके भीतर वो चली।।

दूर करने में लगा जग ये उनको सारी,
पर प्यार में जग ही तो हर बार है हारी!
वो प्यार ही था जिसके भीतर वो चली।।

“जीवन का सफर”

काश! जीवन की किताब खोलता
कुछ पन्ने पीछे कर मिटा हो लेता।

शायद! वो पन्ने ही कुछ और पन्ने जोड़े
मन में विचारों की लौ भर कुछ ऐसे थोड़े।

सादे पन्नो को रंगीन छोड़ने, आगे बढ़ जाता रंग खोजने
सांसों में आहों को भर, निकल जाता रूख को मोड़ने।

काश! जीवन की किताब खोलता अंधकार के थे जो हिस्से
बातों और यादों से भर देता उनमें कुछ मोहक से किस्से।

शायद! उस अंधकार में, था इतना तो वो प्रकाश
जो अंधेरे को उजियारे की लौ को दे जाता एक छोटी सी आश।

जीवन के पन्ने सब भर जाएंगे सारी बाते धारी ही रह जाएंगे
और अंधकार भी उजियारे से सफर की रोशनी में छुप धुंधली हो जाएंगे।

सफर लंबा हो, ठोकरे तो छोटा सा हिस्सा है
चलते जाना पार कर, दुनिया में बन जाना किस्सा है।

कुछ तो कोई बात थी !

मंद मंद मुस्काती थी, कुछ तो कोई बात थी
अनजाने राह पर नज़रे टकरा जाया करती थी।

उन घुंगरेले लट्टो में, कुछ तो कोई बात थी
उंगलियां उन लट्टो में यूं ही नही उलझ जाया करती थी।

दूर थी , मजबूर थी, कुछ तो कोई बात थी
पर पास होने का आभास, हवाओं से दे जाया करती थी।

चुप देखती, पलके भी न झुकती, कुछ तो कोई बात थी
चुप रह कर भी सारी बाते अंतर हृदय से कह जाया करती थी।

मिलन को व्याकुल, स्पर्स को आकुल थी, कुछ तो कोई बात थी
बंधनों में बंद विवश और लाचार थी, मन को समझा, जी को बुझा ले जाया करती थी।

वो हर पल मेरे साथ थी, उसमे यही तो अनोखी बात थी
आज भी हर पल हृदय के संग्रहालय में हो गुम, है वो विचरती।

“यादें”

यादें भूल जाया करती है शायद!
कुछ स्याही मिटाएं न मिटे लिखावट की

मन जल सा हो जाया करता
जल भी इस्थिर न पाया करता।

पंछियों सी थी यादें सारी
अब चहचहाना भी लगे खयाली।

दूर कही से हवाएं चलती
कुछ यादों का किस्सा वो कहती।

समेट लेता सब मन की दरिया में
गर वो इस्मिती की उफान न लाती दरिया में।

वक्त गुजर जाता, मन वही रह जाता
बस तू न था, पर तो छाप कई था।

हां यादें भूल जाया करती है शायद!
जब चित मन हो जाता अवचेतन।

शुभ~

निंदा

हो निंदा गर कभी तुम्हारी,
बुझ लेना तुम पड़े थे भारी।

गर जो निंदा पीछे करे तुम्हारी,
वही तो कहलाया वैभचरी।

हो निंदा गर कभी आँख पे भारी,
वहाँ धैर्य ना खोना सारी।

करे जो निंदा प्रत्यक्ष तुम्हारी,
वो है सिर्फ आत्म तुम्हारी।

असाधुता और जीवन

लिपटे रहे जिससे, ताउम्र वो
ढूंढता रहा उस अहम और कपट को

क्या मिला! सिमट गए राख में,
राख भी हटा दिया न दिखा पाखंड वो

मिल गए जो राख में, कभी शाख पर ना दिखे
सिर्फ! ख़ाक में जा मिले, ख़ाक बन रह गए।